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मंथरा और कैकेई तो मात्र कारण अयोध्या के युवराज के वनवास का जगदीश्वर को तो पृथ्वी पर जन्म लेना ही था दशरथ नंदन का वन गमन निश्चित ही था,अन्यथा कैसे फलित होता चारों ऋषि कुमारों द्वारा वैकुण्ठ द्वारपाल जय विजय को दिया गया श्राप पूर्ण होता प्रत्येक जन्म में जय विजय के उद्धार का वैकुण्ठपति का वचन सिद्ध होती मर्यादा पुरुषोत्तम के जन्म के पूर्व ही रामायण लिख देने वाले सिद्ध ऋषि वाल्मीकी की महत्ता पूर्ण होती धर्मरक्षार्थ श्री लक्ष्मीपति से देवताओं द्वारा की गई प्रार्थना सत्य होती परमपिता ब्रह्मा के मानसपुत्र, सदा नारायण नारायण कहते रहने वाले देवर्षि नारद की वाणी फलित होता नेत्रहीन माता-पिता के परम सेवक श्रवण के पिता का परमप्रतापी रघुवंशी को दिया गया श्राप |
श्रापमुक्त होती सुकेतु यक्ष पुत्री राक्षसी ताड़का अगस्त्य मुनि के श्राप से श्राप मुक्त होती निर्दोष निष्कलंक पतिव्रता वर्षों तक शिला बन प्रतीक्षारत ऋषि पत्नि अहिल्या होता शिव धनुष पिनाक का सदुपयोग मुक्ति होती दनु गंधर्व की स्थूल शिरा ऋषि के श्राप से पूर्ण होते देवासुर संग्राम सहयोगी अयोध्यापति दशरथ के वचन जनमानस देखता भ्राता के लिए भ्राता का स्वेच्छा से सुख व परिवार त्याग जनमानस देखता भ्राता की प्रतीक्षा में वर्षों तक भ्राता के सिंहासन की रक्षा का दायित्व जनमानस देखता भ्राता की पादुका को शिरोधार्य करने वाले भ्राता का राज सत्ता, राज महल व सुविधा त्याग उद्धार होता सुबाहू, मारीच, अहिरावण और महिरावण फिर भी होता तो वही जो राम रचि राखा वनवास ने दशरथ नंदन को को सिद्ध होती वर्षों से प्रतीक्षारत रूद्रावतार की सेवा भक्ति विजय होती मतंग ऋषि के वचनों के आधार पर निषाद बालिका शबरी द्वारा किए गए जीवनभर के विश्वास की होता छाया पकड़कर रोक देने वाली मायावी राक्षसी सिधिका का उद्धार होती ब्रह्मा के आदेश पर नियुक्त लंका की नगरदेवी लंकिनी की मुक्ति होता रिश्यमुख पर्वत निवासी किष्किंधा नरेश सुग्रीव के साथ न्याय होते बंधन मुक्त रावण के कारागार से अनेकानेक देवता होता नल और नील के श्राप का सुदपयोग उद्धार होता राक्षसराज रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद व समस्त राक्षस वंश का जनमानस देखता विश्वविजयी महाराज की निषादराज से मित्रता पातीं अनेकानेक तामसिक आत्माएं सद्गति उस एक परमात्मा की प्रतीक्षा रहती है।
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उन अनेकानेक कारणों को जो अस्तित्व में आ जाते हैं परमात्मा के जन्म से भी पहले कैकई और मंथरा न होतीं तो कारण फिर भी होता तो वही जो राम रचिराखा |वनवास ने दशरथ नंदन को मर्यादापुरुषोत्तम बनाया, वनवास ने आयोध्या के युवराज को विश्वविजयी बनाया , हरि इच्छा से हुई कैकेई और मंथरा की क्षणभंगुर भ्रष्ट मति कारण बनी दोनों के युगों युगों तक के अपयश का, घृणा का वे तो मात्र राम जन्म उद्देश्य की पूर्ति का कारण मात्र थीं |अन्यथा राम को भरत से अधिक स्नेह करने वाली, अयोध्यानरेश के प्राण त्याग का अनायास ही कारण बन जाने वाली जीवन भर पश्चाताप की आग में जलने वाली जिस पुत्र के लिए सब किया उस पुत्र के मुख से माता सुनने के लिए वर्षों तक तरसने वाली वर्षो तक पुत्र के क्रोध और असंख्य संबंधियों, प्रजाजनों और जनमानस की घृणा का सामने करने वाली कैकेई और उनकी दासी मंथरा का कोई निजी बैर नहीं था रघुनंदन से वे तो मात्र पात्र थीं उस पटकथा की जो हरि इच्छा से पृथ्वी पर घटित हुई |